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Sindhu vihar plot

Poem-27

 आज सुबह से ही मानों, जंग सी छिड़ी थी। 

सूरज के घोड़े और मन के घोड़े में। कि देखें कौन तेज़ भागता है? 

पर यह मन जो है ना, मन जो ठहरा, 

खुद को ही ज्यादा आंकता है

और सच में हुआ भी यही। 

पुरवा की चाल थमक गयी, 

टहनियों पर पांखे  लिपट गयी। 

अभी तो सूरज सांझ की दहलीज पर ही अटका था, 

पर मन का घोड़ा तो रात के आंचल में जा सिमटा था। 

 फिर तो जैसे  सब कुछ दिख रहा था, कुछ कुछ सिमटा हुआ, कुछ कुछ बिखरा हुआ सा। 

लज्जा से गुड़ीमुड़ी, गठरी सी छुईमुई बस तुम्हारे पदचापों का  ही तो था इंतजार , 

काश् तुम देख पाते । कनखियों से झांकते  मेरे वो नयन

जो हसरतों के पंखों पर थे सवार। हवाओं में घुला हुआ कोई साज़ सा था। 

तपिश सी रोम रोम में, पिघलता आसमां सा था। 

पर फिर यकायक क्या हुआ की जैसे सब कुछ थम गया। 

हर अहसास मानो बर्फ सा जम गया। बस वही इंतजार। 

तुम   फिर  से नहीं आये इस बार। 

बात तो ये मैं भी जानता था, 

पर खुद को फिर भी बहलाता था

हमेशा की तरह। 

मन भी अब कहाँ  ,वहाँ ठहरने वाला था, 

वापस लौटा और लौटते हुए सूरज से फिर टकरा  गया। 

आंखों -आंखों   में कुछ  इशारे हुए

कल फिर  से मिलने के वादे लिये।

 ऐसा ही तो होता हैं रोज। 

वह कभी भी नहीं आयेगी, मानता हूं, 

और कभी ना आये, ऐसा चाहता भी हूँ  । 

ये अधूरापन ही तो जीवन की जिजीविषा है, 

तप्त मरूस्थल में सुख देती मरीचिका हैं। 

तुम क्या जानो अधूरेपन की तृष्णा को। 

यही खालीपन ही तो है जो मेरे अन्तर्मन की 'अर्धांगिनी` है

अंदर- बाहर से सम्पूर्ण पर कुछ तो ऐसा है, 

जो आधा है। 

इसे खो दिया तो फिर कैसे जीवित रह पाऊँगा। 

अरे पगली, अगर मिलन ही हो गया तो फिर तेरा `सच्चा प्यार` कैसे कहलाऊंगा।

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