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Sindhu vihar plot

Poem-16


मंजिलें तो और भी हैं जमाने में।

कसर छोड़ी कहां है तुझको पाने में।


मिलो ऐसे कि जन्मों का फासला ख़त्म हो,

बड़ा वक्त लगता है, तेरे शहर आने-जाने में।


जिनकी बिगड़ती है बस वही जानते हैं,

पूरी उम्र गुजर जाती है, बिगड़ी बनाने में।


भीड़ जुड़ती है अक्सर यहां, देखा मैंने,

जिंदो को गिराने में और मुर्दों को उठाने में।


जर, जमीन, जोरू सब हार गया लेकिन,

लगा हुआ हुँ अब भी, नसीब आजमाने में।


बदनाम हुए खुद, तो पता चला हमको,

क्या-क्या बिकता है, गुमी इज़्जत कमाने में।


आफताब बनके शहर को रोशन किया हमने,

लोग लगे है लेकिन उगता हुआ सूरज डुबाने में।


हर कदम पर कई रिश्ते बनते हैं 

दम निकल जाता है लेकिन, रिश्ते निभाने में।

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