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Poem-15
लटक पेड़ के एक डाल से
गिरगिट एक चला गया कुछ ऊंचा
पेड़ के नीचे भूतल पर आकर
मगरमच्छ ने मूंह उठाकर पूछा ।
क्यों सखे? पेड़ से लटककर
करतब ऐसा क्यों दिखला रहे हो ?
इतनी पतली डाल पे आकर क्यों
अपनी जान गंवा रहे हो?
गिरगिट बोला मुझे मत रोको
व्यर्थ टांग तुम अड़ा रहे हो ।
मेरी जान है मैं जो कर दूं
तुम आंसू क्यों बहा रहे हो?
अब जीकर क्या करूंगा मैं
जब हमसे ज्यादा मानव
रंग बदल रहा है ।
होकर मानव,मानव, पशु का
आचरण को पकड़ रहा है ।
इसलिए सोचता हूं कि
आत्महत्या ही कर लूं
मानव लोक से हटकर
और कहीं मैं बस लूं ।
गिरगिट की कातर गुहार सुन
मगरमच्छ दयार्द्र स्वर में बोला
तेरा ही यह हाल नहीं, प्रिय
अब हम भी मानव चपेट में आये
मेरा भी है वहीं हाल
क्या हम तुम्हें बताएं ।
अब तो मनुष्य हमसे ज्यादा
छल-कपट जाल बिछा रहा है
मगरमच्छ के आंसू से ज्यादा
अपनी कपटी आंसू बहा रहा है ।
मानव के छल- कपट के आगे
हम भी बेवश- बेकश हो जाते हैं
रहना होगा इसी माहौल में
क्यों सोचते हो हम चले जाते हैं?
आदमी के दोहरे चरित्र ने
हम दोनों को चोट किया है
गिरगिट के भांति रंग बदलना
और मगरमच्छ के आंसू बहाना
दोनों का बेरहमी से गला घोंट दिया है।
मेरा कहना मान सखे
प्रण प्राण- त्याग का त्याग सखे
अपना हक लेने के लिए लड़ना पड़ता है
आत्महत्या का ख्याल केवल कायर ही करता है।
अपना हक लेने मानव को कभी नहीं मैं दूंगा
मान रखने के लिए मुझे जो भी
करना पड़े बिना देर किए, करूंगा ।
दिखावटी आंसू बहाने का हक
जो केवल हमें मिला है
उसे कैसे जीते जी
मानव को छीनने दूंगा ?
तुम्हारे भी हक की लड़ाई है
इसे बेजा जाने न दूंगा
जितना साथ की होगी जरूरत
उतना साथ मैं दूंगा ।
तेरी जरूरत है मुझको
मेरी जरूरत तुझको
चलो हम दोनों मिल-जुलकर
रोकें पशुता की ओर
बढ़ते मानव -चरण को।
परास्त करें भटकी मानवता को।
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